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Re Kabira 052 - सोचो तो सही

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--o Re Kabira 052 o-- सोचो तो सही कहाँ से आ रही थी गुलाबों की वो महक बगीचे में कल? थे खिले वो पिछले बरस भी, खड़े तुम कभी हुए नहीं फ़ुरसत से एक पल  कहाँ से आ गए सड़क के उस पार वो दरख़्त वहां पर? था तो वो वहाँ पहले भी, गुम  तुम  थे इतने दिखे बस घड़ी के काँटे कलाई पर कहाँ से दिखाई देने लगे तारे आसमान में आजकल?  थे चमकते वो हर रात भी, तुमने काफी दिनों से की नहीं टहलने की पहल  कहाँ से सुनाई देने लगे वो गाने जो गुनगुनाते थे तुम कभी-कभी? है बजते वो गाने अब भी .. और गाते हो अब भी, तुम मसरूफ़ थे शोर में इतना की लुफ्त लिया ही नहीं कहाँ चली गई वो किताब जो तुमने खरीदी थी कुछ अरसे पहले ही?  है किताब उसी मेज पर अब भी, तुमने दबा दी रद्दी के ढेर में बस यूँ ही  कहाँ ख़त्म हो गई कहानी जो तुमने सुनाई थी बच्चों को आधी अधूरी ही? हैं बच्चे इंतज़ार में अब भी, तुम ही मशगुल थे कहीं और कहानी तो रुकी है वहीँ  कहाँ से आ गयी शिकायतें घर पर अब हर रोज़ नयी-नयी?  थे शिके-गिल्वे हमेशा  से  वही, तुमने बड़े दिनों के बाद ध्...