सच्ची दौलत - Real Wealth - Hindi Poetry - Re Kabira 105


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सच्ची दौलत - Real Wealth - Hindi Poetry - Re Kabira 105

सच्ची दौलत

भाग रहे हो तुम जहाँ की दौलत बटोरने,
जो अपना नहीं उसे किसी तरह खचोटने,
स्थिर नहीं रहता दिमाग शांत नहीं रहता मन, 
रातों को नींद नहीं आती रहते दिन भर बेचैन, 
कैसे नज़र-अंदाज़ होती देखो असली दौलत,
सुनो! लुटा रहे हो, मिटा रहे हो सच्ची संपत्ति.

पता नहीं अक्सर नाश्ता करना क्यों भूल जाते?
घर का खाना फिकता क्यों ठंडे सैंडविच खाते?
बच्चॉ को बड़ा होते बस सोते-सोते ही देख पाते?
पत्नी के साथ शामों को पुराने शिकवों में गवाते?
अपने लिए समय को ढेर में सबसे नीचे दबाते?
सेहत को पीछे छोड़ खुद को दिन रात भगाते?

भूलते उनको तुम्हारा रोज़ इंतज़ार करते  जो, 
पीछे छूट जाते वो जिनके लिए गोते खाते हो,
सुबह अँगड़ाई ले अपने लिए थोड़ा समय निकालो, 
भाग्यशाली हो सेहतमंत हो जोतो दिल सींचो मनको, 
दो बातें करो प्यार से देखो जो चौखट पर खड़ा हो, 
जो अपने उन्हें पहचानो जो अपना उसे सम्भालो,

भूख लगेगी, नींद आएगी, प्यार करोगे और पाओगे,
मुस्कराओगे! खुशियाँ फैलाओगे सच्ची दौलत संजोते जाओगे...  

'ओ रे कबीरा' सच्ची दौलत संजोते जाओगे !!!


आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira

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