Re Kabira 044 - कुछ ख़ाली ख़याल
--o Re Kabira 044 o-- कुछ ख़ाली ख़याल ख़ाली कमरे की मेज़ पर बैठे-बैठे, कुछ ख़ाली ख़याल लिख पड़ा और ख़ाली ख़याली घोड़े दौड़ाने लगा, वो मंसूबे अब तक कामयाब हुए नहीं... ख़ाली तो प्याली थी, जिसमे अब ग़र्म काली बिना शक्कर की चाय है और ख़ाली वो मेज़बान भी था, जिसने रुक कर किया एहतिराम बुज़ूर्ग का ... ख़ाली तो काँच के ग्लास है, जो सजा रखे हैं किताबों के बीच उस अलमारी पर और ख़ाली वो क़िताब के पन्ने भी है, जो किसी ने नहीं पढ़े अब तक ... वैसे ख़ाली तो पड़ी है वो महफ़िल की बोतल, बीवी का गुबार निकलेगा जिस पर और ख़ाली वो सोफ़े का कोना भी होगा, जिस पर देखी थी दो-तीन सिनेमा कल ... ख़ाली तो घर भी लगता है, जब होते हैं बच्चे इधर-उधर और ख़ाली वो आँगन वहां भी हैं, जहाँ घरवाली-घरवाले करते है इंतेज़ार त्योहरों पर ... वहां ख़ाली तो दीवार है, जिसे सजना है एक तस्वीर से इस दिवाली पर और ख़ाली वो चित्र भी है, जिसे रंगा नहीं रंगसाज़ ने अभी तक ... आज ख़ाली तो सड़क हैं, जहाँ ज़श्न मनता है किसी और की जीत पर और ख़ाली वो चौराहे-बाज़ार भी हैं, जहाँ से निकला था ज...