Re Kabira 073 - ख़रोंचे
--o Re Kabira 073 o--
ख़रोंचे |
किसको ज़रूरत है काँटीले तारों की,
वैसे ही बहुत ख़रोंचों के निशाँ है जिश्म पर
किसको चाहिये ख़्वाब भारी चट्टानों से,
ज़िन्दगी की लहरों ने क्या कम तोड़ा है टकरा कर
किसको जाना धरा की दूसरी छोर तक,
चार कदमों का फासला ही काफी है चलो अगर
किसको उड़ना है आसमान के पार,
बस कुछ बादल चाहिये हैं जो बरसे जम कर
किसको बटोरना है दौलत सारे जहाँ की,
चकाचक की होड़ मे सभी लगे हुये हैं देखो जिधर
किसको इकट्ठे करने सहानुभूति दिखाने वालों को,
चारों ओर हज़ारों की भीड़ है सारे बुत मगर
किसको चाह है किसी कि दुआ की,
लगता है बद-दुआ ही है जिसका हुआ असर
किसको सहारा चाहिये मदहोशी का,
ये अभिमान का ही तो नशा है जो चढ़े सर
किसको हिसाब चाहिये हर पल का,
थोड़ा वक़्त तो निकाल सकते हैं साथ एक पहर
किसको लूटना है वाह-वाही सब की,
कभी-कभी तो हम बात कर सकतें हैं तारीफ़ कर
किसको पढ़ना है कवितायेँ शौर्य-सुंदरता की,
बस एक शब्द ही काफी है शुक्रिया-धन्यवाद कर
किसको ज़रूरत है काँटीले तारों की,
वैसे ही बहुत ख़रोंचों के निशाँ है जिश्म पर
आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira
--o Re Kabira 073 o--