चौराहा - Re Kabira 104
-- o Re Kabira 104 o --
चौराहा
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
कभी लगे बस बहुत हुआ,
कभी आँखों में चुबे कमिया,
पर होठों से हमेशा निकले 'सब बढ़िया !'
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
चिंतित करे माता पिता का बुढ़ापा,
साथ ही बेचैन करे बच्चों का बलवा,
पर करना है मुस्कुराने का दिखावा.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
कभी कभी काम लगे बोझा,
और रस्म-ओ-रिवाज ओछा,
है सोच पर फ़ायदे-नुक्सान का पोंछा.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
जब हर शिकायत बने उलझन,
रोज़ बहसें होती और बातें कम,
यूँ हरदम व्याकुल रहता मन.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
शौक-समय का बनता नहीं संतुलन,
सपनों से मानो उड़ गये पसंदीदा रंग,
रहता उधेड़-बुन में दिल-दिमाग-मन.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
जब दिल बोलता चल ढूंढ़ बचपन,
दिमाग इशारा करे भुला नहीं लड़कपन,
पर क्या कर सकता हूँ अकड़े है बदन.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
सोचता बहुत हो गया भाड़ में जाये सब,
करूँगा जो दिल चाहे अभी नहीं तो कब,
फिर नींद खुलती, लगता दिहाड़ी पर तब.
उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ ,
जैसे हज़ार टुकड़ो में बटा पड़ा हूँ,
ज़िन्दगी के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,
'ओ रे कबीरा' जैसे चौराहे पर खड़ा हूँ.
आशुतोष झुड़ेले
Ashutosh Jhureley
@OReKabira
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