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चौराहा - Midlife Crisis - Hindi Poetry - Re Kabira 104

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-- o Re Kabira 104 o --  चौराहा उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, कभी लगे बस बहुत हुआ, कभी आँखों में चुभे कमिया,  पर होठों से हमेशा निकले 'सब बढ़िया !' उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, चिंतित करे माता पिता का बुढ़ापा, साथ ही बेचैन करे बच्चों का बलवा,  पर करना है मुस्कुराने का दिखावा. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, कभी कभी काम लगे बोझा, और रस्म-ओ-रिवाज ओछा,  है सोच पर फ़ायदे-नुक्सान का पोंछा.  उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, जब हर शिकायत बने उलझन, रोज़ बहसें होती और बातें कम, यूँ हरदम व्याकुल रहता मन. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ,  शौक-समय का बनता नहीं संतुलन, सपनों से मानो उड़ गये पसंदीदा रंग,  रहता उधेड़-बुन में दिल-दिमाग-मन.   उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, जब दिल बोलता चल ढूंढ़ बचपन,  दिमाग इशारा करे भुला नहीं लड़कपन,  पर क्या कर सकता हूँ अकड़े है बदन. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ, सोचता बहुत हो गया भाड़ में जाये सब,  करूँगा जो दिल चाहे अभी नहीं तो कब,  फिर नींद खुलती, लगता दिहाड़ी पर तब. उम्र के उस पड़ाव पर खड़ा हूँ , जैसे हज़ार टुकड़ो में बटा पड़ा हूँ,...

ये मेरे दोस्त - My Friends - Re Kabira 103

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  -- o Re Kabira 103 o --  ये मेरे दोस्त  ये पुराने दोस्त वो सयाने दोस्त हैं बड़े कमाल ये मेरे दोस्त यादों में बसे, क़िस्सों से जुड़े,  गुनगुनाते मुस्कुराते जहाँ चले झूमते चलें  ये दीवाने दोस्त वो मस्ताने दोस्त  हैं परवाने ये मेरे दोस्त  दूर हैं, पर लगते साथ हैं खड़े,  मधुमक्खियों की तरह घेर मुझे चलें  ये बेमिसाल दोस्त वो बेफ़िक्र दोस्त  हैं बेबाक ये मेरे दोस्त जमाने से लड़ें, किसी की न सुने,  हाथ में हाथ डाल गलियारों में चलें ये कामयाब दोस्त  वो मशहूर दोस्त हैं दूर तक मा'रूफ़ ये मेरे दोस्त ऊँचे पायदानों पे चढ़ें, आसमान में उड़े,  जब हमारे साथ चले ज़मीन पर ये चले...

लिखते रहो Keep Writing - Re Kabira 101

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-- o Re Kabira 101 o-- लिखते रहो लिखते रहो, शब्द शक्तिशाली हैं  तो अजब मायावी भी हैं  शब्दों में ध्यान  की  ताक़त है तो ज्ञान  की  चाहत भी है  लिखते रहो, शब्द प्रहार कर देते हैं  तो वहीं मरहम् भी देते हैं शब्दों में मन की खटास है तो दिल की मिठास भी है लिखते रहो, शब्द मसले बन जाते हैं तो ये मसलों को हल भी कर जाते हैं  शब्दों से दीवारें खड़ी हो जातीं हैं तो पहाड़ मिट्टी में भी मिल जाते हैं लिखते रहो, शब्द लोगों को जगा सकते हैं तो आसानी से बँटवाते भी है शब्दों में बहकाने की, भड़काने की फ़ितरत है  तो मोहब्बत फैलाने की आदत भी है लिखते रहो, शब्द तुम्हें बाँध देते हैं तो बन्धनों से मुक्त भी करते हैं शब्दों से ही गीत है प्रीत है मीत है तो भक्ति की शक्ति भी है लिखते रहो, शब्द ही अल्लाह और राम हैं तो रावण और शैतान भी हैं  शब्दों में राम है श्याम है तो सियाराम राधेश्याम भी है लिखते रहो, शब्द बेज़ुबान की जान हैं तो इनके बिना ज़ुबानी बेजान हैं शब्दों में ही तो बड़े-बड़े गुमनाम हैं तो ये कितनों की पहचान भी हैं  लिखते रहो, शब्द ही तुम्हारे व्...

बुलन्द दरवाज़ा - Re Kabira 100

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-- o Re Kabira 100 o-- बुलन्द दरवाज़ा  हमारी यादों को जो फिर ताज़ा कर दे, हमारी कहानियों में वापस जान डाल दे, देख जिसे ज़माना रुके और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, निशानी हमारी बे-जोड़, बे-मिसाल होना चाहिए।  हमारे सपनो जैसी रंगों से भरी, हमारे इरादों जैसी ज़िद सी खड़ी, देख जिसे उम्मीद बंधे और लोग कहें  यादगार हो तो ऐसी, छाप हमारी एक मिसाल होना चाहिए।  हमारे बढ़ते कदमो जैसी अग्रसर, हमारे फैलते पँखों जैसी निरंतर, गुज़रने वाले गर्व करें और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, मुहर हमारी बस कमाल होना चाहिए।  हमारे बिताये चार सालों का मान धरे, हमारी उपलब्धियों की एक पहचान बने,  योगदान प्रेरित करे और लोग कहें, यादगार हो तो ऐसी, जीत का प्रतीक शानदार होना चाहिए।  हमारे २५ साल के सफ़र सी अनुपम,  हमारी यारी-दोस्ती की तरह शाश्वत, जब हम मिलें जश्न मने और हम कहें, यादगार हो तो ऐसी, आरंभ का द्वार बुलन्द होना चाहिए।  हमारी निशानी, हमारी छाप,  हमारी मुहर, हमारी जीत का प्रतीक,  हमारे आरंभ का द्वार बुलन्द होना चाहिए ! बुलन्द होना चाहिए ! आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhur...

पल - Moment - Hindi Poetry - Re Kabira 098

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-- o Re Kabira 098 o-- पल Moment पल पल पल पल पल कल पल अगल पल पल कल कल पल कल पल पिछल पल पल पल पल पल चल पल अचल पल पल चल चल पल चल पल अटल पल पल पल पल पल तल पल जबल पल पल तल तल पल तल पल सुतल पल पल पल पल पल भल पल जटल पल पल बल बल पल बल पल प्रबल पल पल पल पल पल छल पल उटल पल पल फल फल पल फल पल सफल पल पल पल पल पल कल कल पल पल पल पल पल पल चल चल पल —०— भूत और भविष्य की चिंता व्यर्थ है, जो है, आज और अब है  समय चलता रहेगा, समय बढ़ता रहेगा  कभी अटल, कभी कठोर, कभी अचल, कभी स्थिर प्रतीत होगा  कभी हिमालय से ऊँचा, कभी सागर से भी गहरा महसूस होगा  कभी बहुत ही कठिन, कभी बहुत बलवान, कभी कुचलने वाला लगेगा कभी छलावा करेगा, कभी बेचैन करेगा, तो कभी सुकून देगा भूत और भविष्य में लुप्त न होना,  आज और अब को मत खोना  समय चलता रहेगा, समय बढ़ता रहेगा —०— don't ponder too much on the past and future live the present moment moments keep passing and still appear fixed and firm moments can appear as tall as mountains and as deep as oceans some moments can appear complicated, and overwh...

शौक़ नहीं दोस्तों - Re Kabira 095

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-- o Re Kabira 095 o--   शौक़ नहीं दोस्तों वहाँ जाने का है मुझे शौक़ नहीं दोस्तों जहाँ ज़िस्म तो है सजे रूह नहीं दोस्तों कुछ सुनना है कुछ सुनाना भी दोस्तों जो कह न सकें गले लगाना भी दोस्तों तस्वीरों में सब ज़ख़्म छुपाते हैं दोस्तों अरसा हुआ मिले दर्द बताना है दोस्तों  ख़ुशियाँ अधूरी हैं जो बाँटी नहीं दोस्तों महफ़िलें बेगानी हैं जो तुम नहीं दोस्तों हमारी यादें हैं जो बारबार हँसाती दोस्तों मुलाक़ातें ही हैं जो क़िस्से बनाती दोस्तों वक़्त लगता थम गया था जो तब दोस्तों धुँधली यादों के पल जीना वो अब दोस्तों गलियारों में गूँजे अफ़साने हमारे दोस्तों दरवाज़ों पे भी हैं गुदे नाम तुम्हारे दोस्तों गले में हाथ डाल बेख़बर घूमना दोस्तों बेफ़िक्र टूटी चप्पल में चले आना दोस्तों गुनगुनाना धुने जो कभी भूली नहीं दोस्तों झूमें गानों पर जो फिर ले चले वहीं दोस्तों कुछ रास्ते है जहाँ बेहोशी में भी न गुमे दोस्तों कुछ गलियाँ हैं वहाँ हमारे निशाँ छुपे दोस्तों लोग कहते हैं फ़िज़ूल वक़्त गवाया दोस्तों कौन समझाए क्या कमाया है मैंने दोस्तों कल हो न हो आज तो मेरे है पास दोस्तों कोई हो न हो तुम मिलोगे है...

तुम कहते होगे - Re Kabira 093

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-- o Re Kabira 093 o-- मेरे प्रिय मित्र के पिता जी का निधन कुछ वर्षों पहले हो गया था.  ये कविता मेरे दोस्त के लिए, अंकल की याद में.... तुम कहते होगे जब भी तुम किसी परेशानी के हल खोजते होगे  जब भी कभी तुम थक-हार कर सुस्ताने बैठते होगे  जब भी तुम धुप में परछाई को पीछे मुड़ देखते होगे जब भी तुम आईने में खुद से चार बातें करते होगे  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब आंटी की चाय उबल बार बार छलक जाती होगी  जब आंटी डाँटने से पहले कुछ सोच में पड़ जाती होंगी  जब आंटी दाल में नमक डालना बार बार भूल जाती होंगी  जब आंटी दीवार पर लगी तस्वीर में घंटों खो जाती होंगी  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब बच्चों की आँखों अपनी तस्वीर देखते होगे  जब बच्चों की आदतों में अपने आप को पाते होगे  जब बच्चों की ज़िद के आगे न चाह के हारते होगे  जब बच्चों थोड़ी देर नज़र न आये तो घबराते होगे  तुम कहते होगे, पापा मैं आपको ढूँढ़ता रह जाता हूँ ! जब पत्नी की चिड़-चिड़ाहट में अपना बचपन देखते होगे  जब पत्नी और बच्चों की बात...

चलो नर्मदा नहा आओ - Re Kabira 088

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--o Re Kabira 88 o--   चलो नर्मदा नहा आओ  हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अनूठी नर्मदा में आस्था बनाई है चोरी-ठगी-लूट करते जाओ, हर एकादशी नर्मदा नहा आओ दिन भर कुकर्म करो और शाम नर्मदा में डुपकी लगा आओ अन्याय अत्याचार करते जाओ, भोर होते नर्मदा नहा आओ षड्यंत रचो धोखाधड़ी करो और नर्मदा में स्नान कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अनोखी नर्मदा परिक्रमा बनाई है पाप तुम कर, अपराध तुम कर, नर्मदा में हाथ धो आओ कर्मों का हिसाब और मन का मैल नर्मदा में घोल आओ जितने बड़े पाप उतने बड़ा पूजन नर्मदा घाट कर आओ समस्त दुष्टता के दीप बना दान नर्मदा पाट कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी अजीब नर्मदा की दशा बनाई है दीनो से लाखों छलाओ सौ दान नर्मदा किनारे कर आओ दरिद्रों का अन्न चुराओ और भंडारा नर्मदा तट कर आओ मैया मैया कहते अपराधों का बोझ नर्मदा को दे आओ बोल हर हर अपने दोषों से दूषित नर्मदा को कर आओ हमने विचित्र ये व्यवस्था बनाई है बड़ी गजब नर्मदा की महिमा बनाई है इतने पाप इकट्ठे कर कहाँ नर्मदा जायेगी, पर तुम नर्मदा नहा आओ हमारे पाप डोकर कैसे नर्मदा स्वर्ग जायेगी, ...

Re Kabira 087 - पहचानो तुम कौन हो?

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  --o Re Kabira 87 o-- आचार्य रजनीश "ओशो" के प्रवचन "पहचानो कौन हो?" से प्रेरित कविता - पहचानो तुम कौन हो? पहचानो तुम कौन हो? बिछड़ गया था अपनी माँ से घने जंगल में जो, शेरनी का दूध पीता शावक था वो, भूखा-प्यासा गिर पड़ा थका-माँदा मूर्क्षित हो, मिल गया भेड़ के झुंड को...   अचंभित भेड़ बो ली - पहचानो तुम कौन हो?   चहक उठा मुँह लगा दूध भेड़ का ज्यों, बड़ा होने लगा मेमनो के संग घास चरता त्यों, फुदकता सर-लड़ाता मिमियता मान भेड़ खुद को, खेल-खेल में दबोचा मेमने को...   घब रा कर मेमना बोला- पहचानो तुम कौन हो?   सर झुका घास-फूस खाता, नहीं उठाता नज़रें कभी वो, सहम कर भेड़ों की भीड़ संग छुप जाता भांप खतरा जो, किसी रात भेड़िया आया चुराने मेमनो को, भाग खड़ा हुआ भेड़िया देख शेर के बच्चे को..   ख़ुशी से मेमने बोले - पहचानो तुम कौन हो?   जवान हुआ, बलवान हुआ, दहाड़ने लगा, लगा मूंछे तानने वो, थोड़ा हिचकिचाने ल गीं भेड़ देख उ सके पंजों को, भरी दोपहरी एक और शेर आया भोजन बनाया दो भेड़ों को, और घूरता रहा मिमयाते भेड़ की रूह वाले इस शेर को ...

Re Kabira 083 - वास्ता

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    --o Re Kabira 83 o-- वास्ता बस चार कदमों का फासला था, जैसे साँसों को न थमने का वास्ता था  रुक गये लफ़्ज़ जुबान पर यूँ ही, जैसे शब्दों को न बयान होने का वास्ता था   निग़ाहें उनकी निग़ाहों पर टिकी थीं, मेरी झिझक को तीखी नज़रों का वास्ता था कुछ उधेड़ बुन में लगा दिमाग़ था, क्या करूँ दिल को दिल का वास्ता था कलम सिहाई में बड़ी जद्दोज़हद थी, पर ख़्वाबों को ख़यालों का वास्ता था लहू को पिघलने की ज़रूरत न थी, पर ख़ून के रिश्तों का वास्ता था फूलों को खिलने की जल्दी कहाँ थी, कलियों को भवरों के इश्क़ का वास्ता था बारिश में भीगने का शौक उनको था, कहते थे बादलों को बिजली का वास्ता था दो शब्द कहने की हिम्मत कहाँ थी, पर महफ़िल में रफ़ीक़ों का वास्ता था थोड़ा बहकने को मैं मजबूर था, मयखाने में तो मय का मय से वास्ता था न मंदिर न मस्ज़िद जाने की कोई वजह थी, मेरी दुआओं को तेरे रिवाज़ों का वास्ता था  न ही तेरे दर पर भटकने की फ़ितरत थी, ओ रे कबीरा ... मुझे तो मेरी शिकायतों का वास्ता था    मुझे तो मेरी शिकायतों का वास्ता था    ...

Re Kabira 082 - बेगाना

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  --o Re Kabira 82 o-- बेगाना थोड़ी धूप थोड़ी छाँव का वादा था, थी चेहरे पर मुस्कराहट और मुश्किलें झेलने का इरादा था ढूंढ़ती रही आँखें खुशियाँ, पर आँसुओं का हर कदम सहारा था मुसाफिर बन निकल तो चला, अनजान कि जीवन भी एक अखाड़ा था  चारों तरफ़ थी ऊँची दीवारें, हर रुकावट से टकराने का वादा था, थी हिम्मत तूफानों से लड़ने की और चट्टानो को तोड़ कर जाने का इरादा था  एक तरफ जज़्बा, दूसरी ओर जोश का किनारा था पता नहीं कौन जीता और किसको हार का इशारा था पता था आसान नहीं होगा, पर आगे बढ़ते रहने का वादा था रोका पाँव के छालों ने और कटीले रास्तों ने पर न रुकने का इरादा था  मील के पत्थर तो मिले बहुत, पर मंज़िल अभी भी एक नज़ारा था थी मंज़िल हमसफ़र ...  ओ रे कबीरा बेहोश बिलकुल बेगाना था थोड़ी धूप थोड़ी छाँव का वादा था, थोड़ी धूप थोड़ी छाँव का वादा था आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira   --o Re Kabira 82 o--

Re Kabira 080 - मन व्याकुल

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  --o Re Kabira 080 o-- मन व्याकुल मन व्याकुल क्यों विचलित करते, ये अनंत विचार झंझोड़ देते क्यों निर्बल करते, ये अंगिनत आत्म-प्रहार प्रबल-प्रचंड-उग्र-अभिमानी,   झुकते थक कर  मान हार चक्रवात-ओला-आंधी-बौछाड़ रूकती, रुकते क्यों नहीं ये व्यर्थ आचार क्यों टोकते, क्यों खट-खटाते, स्वप्न बनकर स्मिर्ति बुनकर ये दुराचार कहाँ से चले आते क्यों चले आते, ये असहनीय साक्षात्कार केवल ज्ञान-पश्चाताप-त्याग-परित्याग, भेद न सके चक्रव्यूह आकार कर्म-भक्ति-प्रार्थना-उपासना, है राह है पथ नहीं दूजा उपचार मन व्याकुल क्यों विचलित करते, ओ रे कबीरा... ये अनंत विचार राम नाम ही हरे, राम नाम ही तरे, राम नाम ही जीवन आधार आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OReKabira   --o Re Kabira 80 o--

Re Kabira 078 - ऐसे कोई जाता नहीं

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    --o Re Kabira 078 o-- ऐसे कोई जाता नहीं आज फिर आखों में आँसू रोके हूँ, आज तो मैं रोऊँगा बिल्कुल नहीं आज मैं और भी ख़फ़ा हूँ, आज मैं चुप रह सकता बिल्कुल नहीं  जाना तो है सबको एक दिन, पर ऐसे जाने का हक़ तुझको था ही नहीं बहुत तकलीफ़ हो रही है, पर आँसू बहाने की मोहलत मिली ही नहीं  बिछड़ने के बाद पता चला, फ़ासले सब बहुत छोटे हैं कोई बड़ा नहीं हमेशा की तरह पीछे-अकेले छोड़ गया, देखा मुझे पीछे खड़ा क्यों नहीं इतनी शिकायतें है मुझको, पर अच्छे से लड़ने का मौक़ा तूने दिया ही नहीं ग़ुस्सा करने हक़ है मेरा, पर किस को जताऊँ तू तो  अब   यहाँ है ही नहीं वो ठिठोलियाँ, वो छेड़खानियाँ, फ़र्श पर लोट-लॉट कर हँसना, याद करूँ या नहीं? केवल खाने की बातें, खाने के बाद मीठा, और फिर खाना, याद करूँ कि नहीं? वो साथ लड़ी लड़ाइयाँ, रैगिंग के किस्से,  छुप कर सुट्टे, याद करने के लिए तू नहीं  बिना बात की बहस, टॉँग खीचना, मेरी पोल खोलने वाला अब कभी मिलेगा नहीं  आँखें बंद करूँ या खोल के रखूँ, तेरा मसखरी वाला चेहरा हटता ही नहीं खिड़की से बाहर काले बादल छट गए, फिर भी तू...

Re Kabira 073 - ख़रोंचे

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  --o Re Kabira 073 o-- ख़रोंचे किसको ज़रूरत है काँटीले तारों की, वैसे ही बहुत ख़रोंचों के निशाँ है जिश्म पर किसको चाहिये ख़्वाब भारी चट्टानों से, ज़िन्दगी की लहरों ने क्या कम तोड़ा है टकरा कर   किसको जाना धरा की दूसरी छोर तक, चार कदमों का फासला ही काफी है चलो अगर किसको उड़ना है आसमान के पार, बस कुछ बादल चाहिये हैं जो बरसे जम कर किसको बटोरना है दौलत सारे जहाँ की, चकाचक की होड़ मे सभी लगे हुये हैं देखो जिधर  किसको इकट्ठे करने सहानुभूति दिखाने वालों को, चारों ओर हज़ारों की भीड़ है सारे बुत मगर किसको चाह है किसी कि दुआ की, लगता है बद-दुआ ही है जिसका हुआ असर  किसको सहारा चाहिये मदहोशी का, ये अभिमान का ही तो नशा है जो चढ़े सर किसको हिसाब चाहिये हर पल का, थोड़ा वक़्त तो निकाल सकते हैं साथ एक पहर किसको लूटना है वाह-वाही सब की, कभी-कभी तो हम बात कर सकतें हैं तारीफ़ कर किसको पढ़ना है कवितायेँ शौर्य-सुंदरता की, बस एक शब्द ही काफी है शुक्रिया-धन्यवाद कर  किसको ज़रूरत है काँटीले तारों की, वैसे ही बहुत ख़रोंचों के निशाँ है जिश्म पर आशुतोष झुड़ेले Ashutosh Jhureley @OR...

Re Kabira 0069 - रंगों में घोली होली है

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  --o Re Kabira 069 o-- रंगों में घोली होली है देखो कैसी ये होली है, हमने रंगों में घोली होली है छिड़क तनिक गुलाल, प्यार जताने की होली है मार पिचकारी लाल रंग की, शिक़वे मिटाने की होली है सन दो कौसुम्भ की सुगंध में, ये मानो भक्तों की होली है गोबर की जो महक आये, तो भैया भागो अंध-भक्तों की होली है जहाँ नील ही नील दिखे, समझो आज खूब खेली होली है जरा सिन्दूर चढ़ा कर, पुजारी ने भी खेली होली है पीलक ने भी खेली, मौसम बदलने के होली है नारंगी-हरे रंग में फ़रक न दिखे, तो ये असली होली है राख में ढ़के हुए, साधु-सन्यासियों ने खेली होली है श्वेत टिका लगाए, वृन्दावन के आश्रम में खिली होली है माटी-कीचड़ में सने, श्रमिक-किसानों की भी ये होली है मिट्टी में लिपटे हुए, माली के बच्चों ने खेली होली है श्याम रंग में छुपे, कुछ अतरंगों की होली है रंगों की होदी में धकेल, दोस्तों ने भी खेली होली है चार लकीरें रंगो में लगाकर ही सही, हिचकिचाहट से कुछ लोगों ने खेली होली है कुछ गीली कुछ सूखी, नीली-पीली, लाल-गुलाबी सतरंगों में डूबी हुई, आज खुशियों की होली है रंगों में घोली होली है, होली है भाई होली है.. आशुतोष ...