Re Kabira 051 - अक्स
--o Re Kabira 051 o-- अक्स कभी मेरे आगे दिखती हो, कभी मेरे पीछे चलती हो कभी साथ खड़ी नज़र आती हो, कभी मुझ में समा जाती हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी परछाई तो नहीं हो? कभी सुबह की धुप में हो , कभी दोपहर की गर्मी में हो कभी शाम की ठंडी छावं में हो , कभी रात की चाँदनी में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी अंगड़ाई तो नहीं हो? कभी मेरी घबराहट में हो, कभी मेरी मुस्कुराहट में हो कभी मेरी चिल्लाहट में हो, कभी मेरी ह्रडभडाहट में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी सच्चाई तो नहीं हो? कभी मेरी कहानी में हो, कभी मेरी सोच में हो कभी मेरे सपनों में हो, कभी मेरे सामने खड़ी हुई हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आरज़ू तो नहीं हो? कभी पंछी चहके तो तुम हो, कभी बहते झरनों में तुम हो कभी हवा पेड़ छू के निकले तो तुम हो, कभी लहरें रेत टटोलें तो तुम हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी ख़ामोशी तो नहीं हो? कभी कबीर के दोहो में हो, कभी ग़ालिब के शेरों में हो कभी मीरा के भजन में हो, कभी गुलज़ार के गीतों में हो सोचता हूँ तुम कौन हो, कहीं मेरी आवा